बाल मजदूर
विवश होकर लुटा बचपन
हो गया जवान उम्र से पहले ही
देख न पाया रास्ता विद्यालय का
सुन न सका शिक्षा की बातें गुरु की
यदि करता मैं पढ़ने का विचार
तो कौन जुटाता बीमार माँ की दवाई
यही सोच मैं किताबों से दूर हूँ
क्योंकि मैं बाल मजदूर हूँ।
जब कड़ाके की ठंड हिला देती है
मखमल के बिछौने पर लेटे हुए
अमीरजादों के बदन को
तब भी मैं करता हूँ मेहनत
बहाकर पसीना कहलाता हूँ श्रमिक
मुझे गर्व है-
मैं बेरोजगारी का राग नहीं गाता
बल्कि उससे लड़ने वाला एक शूर हूँ
क्योंकि मैं बाल मजदूर हूँ।
करता हूँ काम कभी कारखानों में
तपता हूँ खुद भी भट्ठी के सामने
चिमनियों का धुआँ रँगकर चेहरे को
छीनता है मुझसे मासूमियत मेरी ही
फिर भी नहीं खाता कोई तरस मुझ पर
डाँटता,मारता और दुत्कारता है
भूलकर,कि-
मैं भी किसी की आँखों का नूर हूँ
क्योंकि मैं बाल मजदूर हूँ।
नहीं सह पाता मेरा नन्हा तन-मन
लात-घूँसों के अनगिनत प्रहार
मालिकों की गालियाँ,दुत्कार
मजबूर हूँ दो जून-रोटी की खातिर
सोचकर कि यह मेरा भाग्य है
और मैं अनोखी शक्ति,ऊर्जा,
साहस और सहनशीलता से भरपूर हूँ
क्योंकि मैं बाल मजदूर हूँ।
मत देखो मेरे पेट की सिकुड़ी आँतों को
मत गिनना चाहो मेरी उखड़ी साँसों को
मत पढ़ो मेरे चेहरे के भावों को
मत झाँको मेरी आँखों में
हटा नहीं पाओगे मेरी आँखों से धुन्ध
मिटा ना सकोगे बाल श्रमिक का कलंक
मेरे माथे से
मैं इसके साथ ही जीने को मजबूर हूँ
क्योंकि मैं बाल मजदूर हूँ।
मूँद लो अपनी आँखें
मत खाओ रहम मेरे बचपन पर
मत देखो मेरे हाथों के छाले
मत कहो मेरे भाग्य को कुछ भी
पड़ा रहने दो मुझे इस ज़मीन पर
मत करो कोशिश मुझे उठाने की
मैं आलस्य से नहीं,थकावट से चूर हूँ
क्योंकि मैं बाल मजदूर हूँ।
– देवेश द्विवेदी ‘देवेश’
(लखनऊ)
ई.मेल.-kavidevesh@gmail.com
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