1857 का अनकहा नायक: अवध का गर्जन करता सिंह, राजा दिग्विजय सिंह
लेखिका: शालिनी सिंह
क्या आपने कभी लखनऊ का नाम सुनते ही बख्शी का तालाब याद किया है?
आज यह इलाका शांत और साधारण दिखता है, लेकिन 1857 में यही वह धरती थी जहाँ अंग्रेज़ों के किले हिल गए थे। तोपों की गरज, तलवारों की खनक और विद्रोहियों के नारों से गूंजता यह क्षेत्र आज भी एक कहानी कहता है—
एक ऐसे क्षत्रिय राजा की कहानी, जिसने अंग्रेज़ों को बार-बार धूल चटाई।
यह कहानी है राजा दिग्विजय सिंह की। इतिहास की मोटी किताबें झांसी की रानी, तात्या टोपे, बेगम हज़रत महल का ज़िक्र गर्व से करती हैं, लेकिन उसी काल के इस योद्धा का नाम अक्सर हाशिये पर डाल दिया गया।
आइए, समय की परतें हटाकर देखते हैं कि यह “अवध का सिंह” कौन था, जिसने अपनी मिट्टी के लिए प्राणों की बाज़ी लगा दी।
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अवध का वह दौर: विद्रोह की आग में धधकता प्रदेश
1850 का दशक अवध के लिए असंतोष का दशक था।
किसानों से अत्याचारपूर्वक कर वसूले जा रहे थे।
तालुकेदारों के अधिकार छीने जा रहे थे।
1856 में नवाब वाजिद अली शाह का राज्य अंग्रेज़ों ने हड़प लिया।
हर गाँव, हर कस्बे में आक्रोश उबल रहा था। और इसी आक्रोश की ज्वाला में तपकर निकले राजा दिग्विजय सिंह।
उनका गढ़ था उमरगढ़ किला—आज का गोंडा-बस्ती-लखनऊ सीमांत क्षेत्र, जो उस समय विद्रोहियों की गतिविधियों का केंद्र बना।
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मड़ियांव छावनी पर पहला प्रहार
29 मई 1857। लखनऊ की मड़ियांव छावनी अंग्रेज़ सेना का मजबूत ठिकाना थी।
उस दिन राजा दिग्विजय सिंह ने अपने साथियों संग यहां धावा बोला।
इतिहासकारों के अनुसार यह अवध क्षेत्र में विद्रोह का एक बड़ा संकेत था कि यह लड़ाई सिर्फ सिपाहियों तक सीमित नहीं रही, बल्कि क्षेत्रीय राजाओं और जनता ने भी हथियार उठा लिए।
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लखनऊ रेज़ीडेंसी पर तोपखाने का हमला
1 जुलाई 1857। लखनऊ की रेज़ीडेंसी को अंग्रेज़ अभेद्य किला मानते थे। लेकिन दिग्विजय सिंह ने अपने तोपखाने के साथ वहाँ जोरदार हमला बोला।
उनकी तोपों ने ब्रिटिश सेनाओं को भारी नुकसान पहुँचाया। इसी हमले में ब्रिटिश कमांडर सर हेनरी लॉरेंस घायल हुए और कुछ दिनों बाद उनका निधन हो गया।
स्रोत: Dharmapedia, Rajput resistance to British conquests
बख्शी का तालाब: विद्रोहियों का गुप्त अड्डा
आज का बख्शी का तालाब एक शांत कस्बा है, लेकिन 1857 में यह क्रांति का रणनीतिक केंद्र था।
विद्रोहियों के हथियारों की आपूर्ति यहीं से होती थी।
तालाब के किनारे रातों को गुप्त बैठकें होतीं।
अंग्रेज़ों की नाकाबंदी को तोड़ने के लिए यही जगह विद्रोहियों के लिए “लाइफ़लाइन” थी।
इस तालाब के किनारे ही कई बार अंग्रेज़ सैनिकों को मात खाकर पीछे हटना पड़ा।
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उमरगढ़ किला: संघर्ष का अंतिम मोर्चा
राजा दिग्विजय सिंह का मुख्य किला—उमरगढ़—अंग्रेज़ों के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द था।
लगातार कई महीनों तक अंग्रेज़ों ने इसे घेरने की कोशिश की।
अंततः 2 दिसंबर 1858 को अंग्रेज़ों ने तोपखाने के बल पर इसे कब्ज़े में लिया।
भारतीय संस्कृति डिजिटल रिपॉजिटरी ( लिंक) कहती है:
> “उमरगढ़ किले का कब्ज़ा अंग्रेज़ों के लिए जीत का प्रतीक था, लेकिन इससे पहले दिग्विजय सिंह विद्रोह का ज्वाला बन चुके थे। वे नेपाल भागे और बेगम हज़रत महल से मिलकर संघर्ष जारी रखा।”
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विश्वासघात और गिरफ्तारी
इतिहास गवाह है कि अंग्रेज़ों ने तलवार के साथ-साथ चालाकी को भी हथियार बनाया।
कहा जाता है कि दिग्विजय सिंह के अपने रसोइए शत्रोहन प्रसाद ने धन के लालच में उनका ठिकाना बता दिया।
जनवरी 1865 में उन्हें गिरफ्तार किया गया और काला पानी की कठोर सज़ा सुनाई गई।
लेकिन उनका नाम गांव-गांव में गीतों के रूप में गूंजता रहा।
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इतिहास के ठोस साक्ष्य
राजा दिग्विजय सिंह की वीरता सिर्फ कहानियों तक सीमित नहीं। आज भी उनकी बहादुरी के प्रमाण संग्रहालयों और अभिलेखों में सुरक्षित हैं:
1. प्रयागराज राज्य संग्रहालय (Prayagraj State Museum)
यहां “Government vs Raja Dig Vijay Singh” नामक मुकदमे की फाइल मौजूद है।
उनकी तीन किलो वजन की असली तलवार भी यही रखी है।
[ फोटो/साक्ष्य लिंक]
2. उत्तर प्रदेश राज्य अभिलेखागार (UP State Archives)
Mutiny Telegrams और Bundelkhand Records (1857–76) में उनके खिलाफ अंग्रेज़ों की योजनाओं का ब्यौरा मिलता है।
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लोकगीतों में जीवित नाम
लत्ता अस कलकत्ता हालय, लंदन बैठि लाट थर्राय॥
राजपूत ना रहने देगें, कल के सबको देंय भगाय।।
जब दल उमड़य उमरगढ़ का थरथर कापय मोहम्मदाबाद।
सुनसुन बातैं खुफिया जन की, भगैं फिरंगी लै मरजाद।।
गोंडा, बस्ती और लखनऊ क्षेत्रों के लोकगीत आज भी दिग्विजय सिंह की वीरता का गुणगान करते हैं।
गांव के बुजुर्ग आज भी कहते हैं:
“जिसने अंग्रेज़ की तोपों को ललकारा, उस वीर का नाम दिग्विजय हमारा।”
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क्यों याद करें दिग्विजय सिंह को?
इतिहास को संजोना केवल किताबों का काम नहीं, बल्कि अपनी पहचान को याद रखने का दायित्व है।
राजा दिग्विजय सिंह की कहानी यह साबित करती है:
स्वतंत्रता किसी उपहार में नहीं, संघर्ष से मिलती है।
नेतृत्व केवल ताज पहनने से नहीं, बल्कि धरती की रक्षा करने से साबित होता है।
एक सच्चा योद्धा हारकर भी अमर होता है।
आज बख्शी का तालाब और उमरगढ़ किला सिर्फ भूगोल नहीं, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला के प्रतीक हैं।
नई पीढ़ी को यह जानना ज़रूरी है कि उनकी मिट्टी पर ऐसे नायक भी हुए जिन्होंने अपने जीवन की बाज़ी लगा दी।
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स्रोत सूची (References)
स्रोत विवरण लिंक
DharmapediaRajput resistance to British conquests में राजा दिग्विजय सिंह का विस्तृत विवरण, मुकदमा रिकॉर्ड
लिंक https://en.dharmapedia.net/wiki/Rajput_resistance_to_British_conquests?utm_source=chatgpt.com
Indian Culture Digital Repositoryउमरगढ़ किले पर कब्ज़े का ऐतिहासिक रिकॉर्ड
लिंक
https://indianculture.gov.in/digital-district-repository/district-repository/fort-umaria-captured1858?utm_source=chatgpt.com
UP State Archives1857 विद्रोह से जुड़े आधिकारिक रिकॉर्ड्स लिंक
https://uparchives.up.nic.in/publications.html?utm_source=chatgpt.com
Prayagraj State Museumतलवार और मुकदमे की फाइल[ फोटो/साक्ष्य ]
नोट – उनके नाम से ट्रस्ट है और उसकी देखरेख में आज भी कार्यक्रम होते रहते हैं। 2021 में राजा दिग्विजय कंट्री रेस का आयोजन वृहद स्तर पर हुआ था जिसका संचालन करने के लिए ट्रस्टी ने मुझे ज़िम्मेदारी सौंपी थी तब इस वीर के बारे में हमने जाना और महत्वपूर्ण पल के साक्षी रहे – RJ SHALINI SINGH
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