प्रकाश ठाकुर”लक्ष्य”
ड्रीमलैंड विला,लखनादौन
सिवनी , मप्र 480886
मोबाइल – 7000947985
1-
काश तुम समझ पाते
अपने जन्म को,,,
प्रसवपीड़ा को,,,,
स्त्रीत्व को,,,,
ममता को,,,
माँ को,,,,
काश तुम समझ पाते,,,,
प्रेम को,,,
परिणय को,,,
काया को,,,
दर्द को,,,
पुरषार्थ को,,,
पुरुषत्व को,,,
काश तुम समझ पाते ,,,,
शरीर की जरूरत को,,,
अंगों को महत्ता को,,,
स्त्री की आकांक्षा को,,,
पर इक्षा को,,,
कोमलता को,,,
उम्र को,,,
रिश्ता को,,,
काश तुम समझ पाते,,,
हैवानियत के दंश को
व्यभिचार को,,,,
अत्याचार को,,,
वासना की दरिन्दगी को,,,
मासूमियत की अहमीयत को,,,
काश!तुम समझ पाते,,,
ओस की नज़ाकत को
फूल की कोमलता को
जल की निर्मलता को
नारी की सहजता को,,,,
2
मैं पार करना चाहती हूं
तुम्हारे बनाये हुए भयावह तंग रास्ते को,,,,अपने हौसले के पंख उगाकर,,
अपने ख़्वाबों को सजाकर,,,
जिन्हें तुमने सदियों से उगने नही दिया,,
जिन्हें तुमने कभी सँवरने नही दिया,,,फिर भी चंद कदम बढ़ रही हूँ आगे सम्हल सम्हल कर,,,
तुम्हारे सहारे को धता बताकर
तुम्हारे एहसानों के बोझ को हटाकर,,,
मैं रेशे रेशे कुतर रही हूं
तुम्हारे बनाये जाले को,,,
मैं लम्हे लम्हे उजली हो रही हूं
तुम्हारी छाया को हटाकर,,,
3-
बिटिया !
उठ सुबह हो गई।
तेरी सायकिल,
कहाँ गई?चल दौड़ते हैं मैदान में,
चल उड़ते हैं आसमान में।
चल चीरते हैं नदी की धार,
चल करते हैं लक्ष्मण रेखा पार।
बिटिया उठ
चल बन बज्र सी,
छोड़ सदियों का संकोच।
अब न हरेगा रावण
न होगा फिर चीर हरण।बिटिया उठ
पढ़ सिहांसन में विराजने,
पहचान अपनी शक्ति,
मत चल पुरुष के पीछे,
मत संवर रिझाने,
खुद को कर इतना बुलन्द,
की राम दे अग्नि परीक्षा,,,,
बिटिया उठ
तोड़ दे वर्जना,
कर दे इतनी गर्जना
की टूट जाये पुरुषमयी बैसाखी।
पूरी कायनात तुझमें समाई ,
सारी मानवता तुझसे आई ।
4-
पचास पार,,
टोकनी की बची आखिरी रोटी,,,,,
तुम्हारे चिड़चिड़ेपन की वजह मैं हूँ,,,
तुम गर्म फूली घी लगी रोटी के
शौकीन हो जवानी से,,,मैं जिम्मेदारियों के बोझ तले
बासी सी हो रही हूं,,,
ताज़गी हो या उत्साह
सब गुम से हो रहे हैं
जिंदगी की आपाधापी में,,,तुम्हारी उपेक्षा से
इस रोटी की गर्म हवा जाती रही,,,
रोज रोज की थकान ,
चमड़ी में पपड़ी बनकर उभर आई,,,
अब तो टोकनी की बची
आखरी रोटी सी जी रही हूं,,,,
5-
मैं बेला नही हूँ,,,,
जो तुमसे लिपटकर
खुद को पोषित करूँ,,,मेरा सदैव स्वतंत्र वजूद रहा है
और रहेगा,,,
मैं जीवनदायी हूँ,,,
मैं चांद सी शीतल हूँ
तो सूरज सी ज्वाला
लिए भी चलती हूँ,,,
फूल सी हूँ तो
कांटों का ताज
पहनने का हुनर भी है मुझमें,,,प्रसवपीड़ा सहना और
खून से दूध गढ़ने की नैसर्गिकता ,,,
जल सी अनुकूलनता,,,
धरती सी सृजनशीलता,,,
सिर्फ मुझमें हैमैं ,,,
प्रेयसी सी कोमल हूँ
बहिन सी मित्र और
मां सी जननी हूँ,,,मैं परजीवी नही,,,
सहजीवी हूँ,,,मैं पूरक हूँ,,,
संपूर्णता के लिए
एक अद्वितीय अवयव,,,,सह अस्तित्व के लिए
मैं ही हूँ आवश्यक तत्व,,,
नभ और धरा का
संतुलन मुझसे है,,,,
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